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राष्ट्र कवियत्री ःसुभद्रा कुमारी चौहान की रचनाएँ ःसीधेसाधे चित्र



रुपा सुभद्रा कुमारी चौहान

असमय की घंटी ने सभी को बेचैन-सा कर दिया । अभी आधा घंटा भी नहीं हुआ, मैट्रन जेल बंद करके गई है । फिर तुरंत ही वह घंटी कैसे? जेल-जीवन से घबराई हुई बहनों ने सोचा, शायद उनकी ही रिहाई का फरमान आया हो, जिनके मुलाकाती बहुत दिनों से न आए थे, उन्होंने अंदाज लगाया शायद उनसे कोई मिलने आया है । जिन्हें किसी तरह के सामान की प्रतीक्षा थी उन्होंने समझा, उनका सामान ही आया होगा ।
मेरी तीन साल की बेटी ममता दौड़ती हुई आई, और मेरे गले में लिपटकर बोली, अम्मा उठो चलो ! घंटी बजी है । फाटक खुलेगा । आज तो हम लोग भी छूटने वाले हैं ।
मैं अच्छी तरह जानती थी कि उसकी आशा कितनी निराधार है, फिर भी उसका मन रखने के लिए उसके साथ फाटक की ओर चल पड़ी ।
जमादारिन जल्दी-जल्दी अपना पल्ला संभालती हुई आई; ताला खोलकर उसने फाटक खोल दिया । असिस्टेंट जेलर के साथ एक चौबीस-पच्चीस साल की स्त्री अंदर आई और एक तरफ चुपचाप खड़ी हो गई । उसके साफ कपड़े और गंभीर मुद्रा से बहुत-सी बहनों ने अंदाज लगाया कि यह भी शायद राजबन्दिनी है । जेलर ने जमादारिन को बुलाया और उसे धीरे-धीरे समझाकर चला गया ।
जमादारिन ताला बन्द करके अंदर आई । अपनी हाथ की छड़ी से उस नई आई हुई स्त्री को मारती हुई बोली, चल हरामजादी ! बच्चे को मारना ही था तो उसे पैदा क्यों किया था ।
मार से वह स्त्री तिलमिला-सी उठी, फिर भी जमादारिन के आगे-आगे, जल्दी-ज़ल्दी चल पड़ी । शायद इस डर से कि कहीं दूसरा प्रहार भी न हो जाये । परंतु जमादारिन को इतने ही से संतोष कैसे हो जाता? उसने और भी जोर से मारते हुए और अश्लील गालियाँ देते हुए कहा, आँख दिखाती है रंडी ! देख तो नम्बरदारिन, उधेड़ ले चमड़ी, राँड की और गुनहखाने में बन्द कर दे ।
अब मुझसे न सहा गया । मैंने कहा, जमादारिन, मैट्रन ऐसा करे तो करे, पर तुम बाल-बच्चे वाली स्त्री ठहरीं, तुम किसी पर बिना जाने क्यों हाथ उठाती हो ।

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